कुंवारी भोली–7

शगन कुमार

रात को मुझे नींद नहीं आ रही थी। हरदम नितेश या भोंपू के चेहरे और उनके साथ बिताये पल याद आ रहे थे। मेरे जीवन में एक बड़ा बदलाव आ गया था। अब मुझे अपने बदन की ज़रूरतों का अहसास हो गया था। जहाँ पहले मैं काम से थक कर रात को गहरी नींद सो जाया करती थी वहीं आज नींद मुझसे कोसों दूर थी।

मैं करवटें बदल रही थी… जहाँ जहाँ मर्दाने हाथों के स्पर्श से मुझे आनंद मिला था, वहाँ वहाँ अपने आप को छू रही थी… पर मेरे छूने में वह बात नहीं थी। जैसे तैसे सुबह हुई और…

और मैंने घर के काम शुरू किये। शीलू, गुंटू को जगाया और उनको स्कूल के लिए तैयार करवाया। मैं उनके लिए नाश्ता बनाने ही वाली थी कि भोंपू, जिस तरह रेलवे स्टेशन पर होता है… “दोसा–वड़ा–साम्भर… दोसा–वड़ा–साम्भर” चिल्लाता हुआ सरसराता हुआ घर में घुस गया।

“अरे इसकी क्या ज़रूरत थी?” मैंने ईमानदारी से कहा।

“अरे, कैसे नहीं थी ! तुम अभी काम करने लायक नहीं हो…।” उसने मुझे याद दिलाते हुए कहा और साथ ही मेरी तरफ एक हल्की सी आँख मार दी।

शीलू, गुंटू को दोसा पसंद था सो वे उन पर टूट पड़े। भोंपू और मैंने भी नाश्ता खत्म किया और मैं चाय बनाने लगी। शीलू, गुंटू को दूध दिया और वे स्कूल जाने लगे।

“अब मैं भी चलता हूँ।” भोंपू ने बच्चों को सुनाने के लिए जाने का नाटक किया।

“चाय पीकर चले जाना ना !” शीलू ने बोला,” आपने इतने अच्छे दोसे भी तो खिलाये हैं !!”

“हाँ, दोसे बहुत अच्छे थे।” गुंटू ने सिर हिलाते हुए कहा।

“ठीक है… चाय पीकर चला जाऊँगा।” भोंपू ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

“तुम इनको स्कूल छोड़ते हुए चले जाना।” मैंने सुझाव दिया। मैं नहीं चाहती थी कि भोंपू इतनी सुबह सुबह घर पर रहे। मुझे बहुत काम निपटाने थे और वैसे भी मैं नहीं चाहती थी कि शीलू को कोई शक हो। गुंटू अभी छोटा था पर शीलू अब बच्ची नहीं रही थी, वह भी हाल ही में सयानी हो गई थी… मतलब उसे भी मासिक-धर्म शुरू हो चुका था और हमारे रिवाज़ अनुसार वह भी हाफ-साड़ी पहनने लगी थी।

मेरे सुझाव से भोंपू चकित हुआ। उसने मेरी तरफ विस्मय से देखा मानो पूछ रहा हो,” ऐसा क्यों कह रही हो?”

मैंने उसे इशारों से शांत करते हुए शीलू को कहा,” बाबा रे ! आज घर में बहुत काम है… मैं दस बजे से पहले नहीं नहा पाऊँगी।” फिर भोंपू की तरफ देख कर मैंने पूछा,” तुम दोपहर का खाना ला रहे हो ना?”

“हाँ… खाना तो ला रहा हूँ,”

“ठीक है… समय से ले आना…” मैंने शीलू से नज़र बचाते हुए भोंपू की ओर 11 बजे का इशारा कर दिया। भोंपू समझ गया और उसके चेहरे पर एक नटखट मुस्कान दौड़ गई।

मैंने जल्दी जल्दी सारा काम खत्म किया और नहाने की तैयारी करने लगी। सवा दस बज रहे थे कि किसी ने कुण्डी खटखटाई।

मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने भोंपू खड़ा था… उसकी बांछें खिली हुई थीं, उसने अपने हाथों के थैले ऊपर उठाते हुए कहा “खाना !!”

“तुम इतनी जल्दी क्यों आ गए?”

“तुमने कहा था तुम दस बजे नहाने वाली हो…”

“हाँ… तो?”

“मैंने सोचा तुम्हारी कुछ मदद कर दूंगा…!” उसने शरारती अंदाज़ में कहा और अंदर आ गया।

“कोई ज़रूरत नहीं है… मैं नहा लूंगी !”

“सोच लो… ऐसे मौके बार बार नहीं आते !!” उसने मुझे ललचाया और घर के खिड़की दरवाज़े बंद करने लगा।

वैसे भोंपू ठीक ही कह रहा था। अगर मौकों का फ़ायदा नहीं उठाओ तो मौके रूठ जाते हैं… और बाद में तरसाते हैं। मैं बिना कुछ बोले… बाहर का दरवाज़ा बंद करके अंदर आ गई। मैंने अपना तौलिया और कपड़े लिए और गुसलखाने की तरफ बढ़ने लगी। उसने मुझे पीछे से आकर पकड़ लिया और मेरी गर्दन को चूमने लगा। मुझे उसकी मूछों से गुदगुदी हुई… मैंने अपना सिर पीछे करके अपने आप को छुड़ाया।

“अरे ! क्या कर रहे हो?”

“मैंने क्या किया? अभी तो कुछ भी नहीं किया… तुम कुछ करने दो तो करूँ ना !!!!”

“क्या करने दूँ?” मैंने भोलेपन का दिखावा किया।

“जो हम दोनों का मन चाह रहा है।”

“क्या?”

“अपने मन से पूछो… ना ना… मेरा मतलब है अपने तन से पूछो !” उसने ‘तन’ पर ज़ोर डालते हुए कहा।

“ओह… याद आया…एक मिनट रुको !” कहकर वह गया और अपने थैले से एक चीज़ लेकर आया और गुसलखाने में चला गया और थोड़ी देर बाद आया।

“क्या कर रहे हो?” वह क्या था?” मैंने पूछा।

“यह एक बिजली की छड़ी है… इसे हीटिंग रोड कहते हैं… इससे पानी गरम हो जायेगा… फिर तुम्हें ठण्ड नहीं लगेगी।” उसे मेरी कितनी चिंता थी। मैं मुस्कुरा दी।

वह मेरे सामने आ गया और मेरे कन्धों पर अपने हाथ रख कर और आँखों में आँखें डाल कर कहने लगा,” मैं तुम्हें हर रोज़ नहलाना चाहता हूँ।”

मैं क्या कहती… मुझे भी उससे नहाना अच्छा लगा था… पर कह नहीं सकती थी। उसने मेरी चुप्पी का फ़ायदा उठाते हुए मेरे हाथों से मेरा तौलिया और कपड़े लेकर अलग रख दिए और मेरा दुपट्टा निकालने लगा। मेरे हाथ उसको रोकने को उठे तो उसने उन्हें ज़ोर से पकड़ कर नीचे कर दिया और मेरे कपड़े उतारने लगा। मैं मूर्तिवत खड़ी रही और उसने मुझे पूरा नंगा कर दिया। फिर उसने अपने सारे कपड़े उतार दिए और वह भी नंगा हो गया।

उसका लिंग ठंडा पड़ा हुआ था पर बिल्कुल मरा हुआ भी नहीं था। वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे गुसलखाने में ले आया।

“तुम बहुत सुन्दर लग रही हो !” उसने मेरी चुप्पी तोड़ने की असफल कोशिश की।

उसने हीटिंग रॉड को बंद किया और उंगली से पानी का तापमान देखा… संतुष्ट होकर उसने हीटर अलग रख दिया और बाल्टी में ठंडा पानी मिलाकर उसे नहाने लायक कर लिया। अब उसने मुझे स्टूल पर बिठा दिया और कल की तरह मुझ पर लोटे से पानी डालने लगा। गरम पानी से मुझे अच्छा लगा। इस बार वह शेम्पू भी लाया था और मेरे गीले बालों में शेम्पू लगाने लगा। उसने मुझे अच्छे से नहलाया। नहलाते वक्त उसने मेरे गुप्तांगों को ज़रूरत से ज़्यादा नहीं छूआ… मैं इंतज़ार करती रही।

“तुमको ये गन्दा लगता है?” उसने अपने लिंग की तरफ इशारा करते हुए पूछा।

“नहीं तो !”

“फिर तुम कल इसको “छी छी “क्यों कर रही थी?”

“अरे… इसको मुँह में थोड़े ही ले सकते हैं… इसमें से सुसू आता है।” मैंने उसे समझाते हुए कहा।

“अच्छा… तो ये बताओ… तुम्हारा सुसू कहाँ से आता है?”

“क्या?” मैं चोंक गई।

भोंपू जवाब के एवज़ में मेरे स्टूल के सामने नीचे ज़मीन पर बैठ गया और बड़े अधिकार से मेरी टांगें पूरी खोल दीं। फिर उसने लोटे में पानी लिया और मुझे थोड़ा पीछे धकेलते हुए एक हाथ से मेरी नाभि और उसके नीचे योनि के पास पानी की धार डालने लगा। ऊपर से पानी डालते हुए वह आगे झुका और अपनी जीभ निकाल कर मेरी योनि के पटलों को छूते हुए पानी को पीने लगा।

फिर उसने पानी डालना बंद किया और लोटा नीचे रख कर अपने दोनों हाथों से मेरी पीठ को सहारा देकर मेरे नितम्भ अपनी तरह खिसका लिए। अब उसने अपना मुँह मेरी टांगों के बीच गुसा दिया। मैं आश्चर्यचकित सोच नहीं पा रही थी वह क्या करना चाहता है। मेरी जाँघों पर उसके गालों की दाढ़ी चुभन और गुदगुदी कर रही थी। मेरी टांगें यकायक बंद हो गईं और उसका सिर मेरी जाँघों में जकड़ा गया। उसने अपनी जीभ पैनी की और उससे मेरी झांटों को दायें-बाएं करके योनि पर से बालों का पर्दा हटाने लगा। मुझे ज़ोरदार गुलगुली हुई… मेरी जाँघों में उसकी मूछें लग रही थीं… मैं स्टूल पर उचकने लगी। मुझे लगा यह अपनी जीभ इतनी गन्दी जगह क्यों लगा रहा है ! पर मुझे यह गुदगुदी बहुत अच्छी लग रही थी।

उसने अपनी पैनी जीभ को मेरी योनि फांकों के बीच लगाकर अपने चेहरे को तीन-चार बार दायें-बाएं हिलाया… इससे मेरी टांगें थोड़ी और चौड़ी हो गईं। मैंने भी सहयोग-वश उसके सिर पर से अपनी जाँघों की जकड़ हल्की की… मेरे चिपके हुए योनि कपाट भी थोड़े खुल गए।

उसने झट से अपनी जीभ मेरी योनि में थोड़ी सी घुसा दी जैसे कोई स्प्रिंग वाले दरवाज़े को बंद होने से रोकने के लिए पांव अड़ा देता है। मेरे मुँह से एक लंबी ऊऊऊऊऊ निकली और मेरे बदन में एक बिजली सी कौंध गई।

उसने अपनी जीभ के पैने सिरे को, जो कि बहुत थोड़ा सा योनि में घुसा हुआ था, धीरे से पूरा ऊपर किया और फिर धीरे से कटाव के नीचे तक ले गया। मैं छटपटाने लगी… मुझे ऐसी गहरी और चुलबुलाने वाली गुदगुदी पहले कभी नहीं हुई थी… शायद मैं मूर्छित होने वाली थी। मेरी योनि ने पानी छोड़ना शुरू कर दिया … मुझे इतना अधिक मज़ा बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने उसके सिर को पीछे की तरफ धकेल दिया।

“अरे ! इतनी गन्दी चीज़ को मुँह क्यों लगा रहे हो?”

“तुम्हें यह दिखाने के लिए कि यह गन्दी नहीं है !! जहाँ से तुम सुसू करती हो उसको मैंने प्यार किया… मुझे बहुत मज़ा आया… तुम्हें कैसा लगा?”

मन तो कर रहा था उसे सच बता दूं कि मुझे तो स्वर्ग सा मिल गया था… पर संकोच ! वह मेरे बारे में क्या सोचेगा… कि मैं कैसी लड़की हूँ… यह सोचकर मैंने कुछ नहीं कहा।

“बोलो ना… सच सच बताना… मज़ा आया ना?”

मैंने सिर हिला कर हामी भरी और शर्म के मारे अपने हाथों से अपनी आँखें ढक लीं।

“गुड ! थोड़े और मज़े लूटोगी?”

मैंने कुछ नहीं कहा… पर ना जाने कैसे मेरी टांगें थोड़ी सी खुल गईं और मैं अपना सिर पीछे की ओर लटका कर आसमान की ओर देखने लगी।

वह समझ गया… उसने अपना मुँह फिर से सही जगह पर रखा और अपनी जीभ और होटों से मुझ पर गज़ब ढाने लगा। मुझे बहुत ज़्यादा गुदगुदी हो रही थी और मेरे आनन्द का कोई ठिकाना नहीं था। जिस तरह गाय अपने बछड़े को जीभ से चाट चाट कर साफ़ करती है, वह अपनी फैली हुई जीभ से मेरी योनि को नीचे से ऊपर तक चाट रहा था। कभी कभी जीभ को पैनी करके उसे योनि के अंदर घुसाकर ऊपर-नीचे चलाता।

मैंने छत की तरफ देखते हुए अपने हाथ उसके सिर पर फिराने शुरू किये और चुपचाप स्टूल पर थोड़ा आगे की ओर खिसक गई जिससे सिर्फ मेरे ढूंगे स्टूल के किनारे पर टिके थे और भोंपू का सिर मेरी टांगों के बीच अब आसानी से जा रहा था। उसके सिर पर हाथ फिराते फिराते मैं यकायक उसके सिर को अपनी योनि की ओर दबाने लगी। मेरी योनि, जो एक बार अपना कौमार्य खो चुकी थी, अब सम्भोग-सुख को बार बार भोगना चाहती थी। मेरा धैर्य टूट रहा था और मैं अब सम्भोग के लिए व्याकुल होने लगी। मैं अपने हाथ से उसके सिर को एक लय में हिलाने लगी… उसकी जीभ मेरी योनि में अंदर-बाहर होने लगी… पर इससे मुझे तृप्ति नहीं मिल रही थी बल्कि मेरी कामाग्नि और भी भड़क उठी थी। मेरे कंठ से मादक आवाजें निकलने लगीं और मेरी आँखों की पुतलियाँ मदहोशी में ऊपर जाकर लुप्त हो गईं।

अचानक भोंपू ने अपना सिर मेरी जांघों से बाहर निकाला और एक गहरी सांस ली। वह थक गया था।

“कैसा लगा?” एक दो सांस लेने के बाद उसने पूछा।

मुझे जवाब देने में समय लगा। पहले मुझे स्वर्ग से धरती पर जो आना था… फिर अपनी आँखें खोलनी थीं… अपनी आवाज़ ढूंढनी थी … होशो-हवास वापस लाने थे… तभी तो कोई जवाब दे सकती थी। पर भोंपू मेरे उन्मादित स्वरुप से समझ गया। उसने मेरी दोनों जांघों पर एक एक पुच्ची की और मेरे घुटनों का सहारा लेते हुआ खड़ा हो गया।

फिर उसने मुझे नहलाया, तौलिए से पौंछा और मुझे गोदी में उठा कर बिस्तर पर लिटा कर एक चादर से ढक दिया।

“एक मिनट रुकना… मैं अभी आता हूँ।” कहकर वह वापस गुसलखाने में चला गया और मुझे उसके नहाने की आवाजें आने लगीं।

मैं सोच रही थी कि उसने मुझ से अपने आप को क्यों नहीं नहलवाया… ना ही मेरे साथ कोई और खिलवाड़ की… जब वह मेरी योनि चाट रहा था मैं सोच रही थी भोंपू ज़रूर मुझसे अपना लिंग मुँह में लेने को बोलेगा… मुझे यह सोच सोच कर ही उबकाई सी आ रही थी। हालाँकि उसकी योनि-पूजा से मुझे बहुत ज़्यादा मज़ा आया था फिर भी मुझे लिंग मुँह में लेना रास नहीं आ रहा था। कुछ तो गंदगी का अहसास हो रहा था और कुछ यह डर था कहीं मेरे मुँह में उसका सुसू ना निकल जाये।

मैं अपने विचारों में खोई हुई थी कि भोंपू अपने आप को तौलिए से पोंछता हुआ आया। उसने बिना किसी चेतावनी के मेरी चादर खींच कर अलग कर दी और धम्म से मेरे ऊपर आ गिरा। गिरते ही उसने मेरे ऊपर पुच्चियों की बौछार शुरू कर दी… उसके दोनों हाथ मेरे पूरे शरीर पर चलने लगे और उसकी दोनों टांगें मेरे निचले बदन पर मचलने लगीं।

अपने पेट पर मैं उसका मुरझाया हुआ पप्पू महसूस कर सकती थी। बिल्कुल नादान, असहाय और भोला-भाला लग रहा था… जैसे इसने कभी कोई अकड़न देखी ही ना हो। पर मैंने तो इसका विराट रूप देखा हुआ था। फिर भी उसका मुलायम, गुलगुला सा स्पर्श मेरे पेट को अच्छा लग रहा था।

भोंपू ने अपने पेट को मेरे पेट पर गोल गोल पर मसलना शुरू किया… उसकी जांघें मेरी जाँघों पर थीं और वह घुटनों से घुमा कर अपनी टांगें मेरी टांगों पर चला रहा था। उसके पांव के पंजे कभी मेरे तलवों पर खुरचन करते तो कभी वह अपना एक घुटना मेरी योनि पर दबा कर उसे घुमाता। हम दोनों के नहाये हुए ठण्डे बदनों में वह गरमाइश उजागर कर रहा था। अब उसने मेरे मुँह में अपनी जीभ ज़बरदस्ती डाल दी और उसे मेरे मुँह के बहुत अंदर तक गाढ़ दिया। मेरा दम सा घुटा और मैं खांसने लगी। उसने जीभ बाहर निकाल ली और मेरे स्तनों पर आक्रमण किया।

वह बेतहाशा मुझे सब जगह चूम रहा था… उस पर वासना का भूत चढ़ रहा था… जिसका प्रमाण मेरे पेट को उसके अंगड़ाई लेते हुए लिंग ने भी दिया। वह भोला सा लुल्लू अब मांसल हो गया था और धीरे धीरे अपने पूरे विकृत रूप में आ रहा था। मुझे उसके लिंग में आती हुई तंदुरुस्ती अच्छी लगी… उसका स्पर्श मेरे पेट को मर्दाना लगने लगा… मेरी योनि की पिपासा तीव्र होने लगी… मेरी टांगें अपने आप खुल कर उसकी टांगों के बाहर हो गईं… मेरे घुटने स्वयं मुड़ कर मेरे पैरों को कूल्हों के पास ले आये… मेरे हाथ उसके कन्धों पर आकर उसे हल्का सा नीचे की ओर धकलेने लगे। यूं समझो कि बस मेरी जुबां चुप थी… बाकी मेरा पूरा बदन भोंपू को मेरे में समाने के लिए मानो चिल्ला सा रहा था।

भोंपू एक शादीशुदा तजुर्बेकार खिलाड़ी था। उसे मेरी हर हरकत समझ आ रही होगी पर फिर भी वह अनजान बन रहा था। शायद मुझे चिढ़ाने और तड़पाने में उसे मज़ा आ रहा था।

मेरी योनि न केवल द्रवित हो चुकी थी… उसमें से लगता था एक धारा सी बह रही होगी। मैं अपनी व्याकुलता और अधीरता से लज्जित तो महसूस कर रही थी पर अपने ऊपर संयम पाने में असफल थी।

जब भोंपू ने कोई पहल नहीं की तो मुझे ही मजबूरन कुछ करना पड़ा। मैंने अपनी एड़ियों पर अपना वज़न लेते हुए अपने आप को सिरहाने की तरफ इस तरह सरकाया जिससे उसका लिंग मेरी टांगों के बीच चला गया। मैंने पाया कि उसका लिंग पूरा लंड बन चुका था … तन्नाया हुआ, करीब 45 डिग्री के कोण पर अपने स्वाभिमान का परिचय दे रहा था। मैंने अपने आप को थोड़ा उचका कर नीचे किया तो उसके मूसल का मध्य भाग और टट्टे मेरी योनि को लगे… उसका सुपारा नखरे दिखा रहा था।

भोंपू को यह खेल पसंद आ रहा था।… उसने भी शायद अपनी तरफ से कुछ ना करने की ठान ली थी। गेंद मेरे पाले में थी पर मेरी समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था… शायद वह अपनी जगह से हट कर मेरी योनि में बस गया था। मुझे बस योनि की लपलपाहट महसूस हो रही थी… वह भोंपू के लंड को निगलने के लिए आतुर थी। मेरे तन-बदन में एक गहरी आकांक्षा पनप चुकी थी जो कि सिर्फ लंड-ग्रहण से ही तृप्त हो सकती थी।

जब मुझसे और रहा ना गया, मैंने अपने दोनों हाथ भोंपू के चूतड़ों पर रखे और उसको नीचे की ओर दबाते हुए अपने कूल्हों को ऊपर किया। उसके सुपारे के स्पर्श को सूझते हुए मैंने अपनी कमर को ऐसे व्यवस्थित किया कि आखिर उसके लंड की इकलौती आँख को मेरा योनि द्वार दिख ही गया। जैसे ही उसका सुपारा योनि द्वार को छुआ मेरी सतर्क योनि ने मानो अपना मुँह खोला और उसको झट से निगल गई… उसका सुपारा अब मेरी योनि की पकड़ में था।

इच्छा शक्ति और वासना अपनी जगह है और योनि की काबलियत अपनी जगह। जहाँ मेरा मन उसके पूरे लंड को अंदर लेने के लिए बेचैन था, वहीं मेरी योनि अभी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थी। होती भी कैसे?… अभी उसे अनुभव ही कितना था? सिर्फ कौमार्य ही तो भंग हुआ था…। अर्थात, मेरी तंग योनि में लंड ठुसाने के लिए मरदानी ताक़त और निश्चय की ज़रूरत थी। मैंने अपनी तरफ से कोशिश की पर उसका उल्टा ही परिणाम हुआ। उसका सुपारा फिसल कर बाहर आ गया।

अचानक मुझे भोंपू के हाथ मेरे चूतड़ों के नीचे जाते महसूस हुए। मुझे राहत मिली… शायद भोंपू में भी वासना की ज्वाला पूरी तरह लग चुकी थी… उसका लंड भी कितनी देर आँख-मिचोली खेलता… वह भी अपने आप को कितनी देर रोकता…। भोंपू ने सम्भोग की बागडोर अपने हाथों में ली… मेरी अपेक्षा परवान चढ़ने लगी… मेरा मन पुलकित और तन उसके होने वाले प्रहार से संकुचित होने लगा।

मैंने अपने आप को एक मीठे पर कठोर दर्द के लिए तैयार कर लिया। जब उसने सुपारा अपने लक्ष्य पर टिकाया तो मुझे कल का अनुभव याद आ गया… कितना दर्द हुआ था… मेरी जांघें कस गईं… मेरी एक कलाई ने मेरी आँखों को ढक दिया और मेरे दांत भिंच गए। वह किसी भी क्षण अंदर धक्का लगाने वाला था… मैं तैयार थी। उसने धक्का लगाने के बजाय अपने सुपारे को योनि कटाव में ऊपर-नीचे किया… लगता था वह गुफा का दरवाज़ा ढूंढ रहा हो। उसके अनुभवी सुपारे को कुछ दिक्कत हो रही थी… वह गलत निशाना लगा कर अपना प्रहार व्यर्थ नहीं करना चाहता था… मेरा हाथ स्वतः मार्ग-दर्शन के लिए नीचे पहुंचा और उसके लंड को पकड़ कर सही रास्ता दिखा दिया।

भोंपू ने मेरे बाएं स्तन को मुँह में लेकर मेरा शुक्रिया सा अदा किया और उसके स्तनाग्र को जीभ और दांतों के बीच लेकर मसलने लगा। मेरी नाज़ुक चूची पर दांत लगने से मुझे दर्द हुआ और मेरी हल्की सी चीख निकल गई। उसने दांत हटाकर अपनी जीभ से मरहम सा लगाया और धीरे धीरे लंड से योनि पर दबाव बनाने लगा।

अगर किसी अंग में पीड़ा कम करनी हो तो किसी और अंग में ज़्यादा पीड़ा कर देनी चाहिए। भोंपू को शायद यह फॉर्मूला आता था… उसने चूची से मेरा ध्यान चूत पर आकर्षित किया। उसके वहाँ बढ़ते दबाव से मैं चूची का दर्द भूल गई और अब मुझे चूत का दर्द सताने लगा। भोंपू ने मेरा दूसरा चूचक अपने मुँह में ले लिया और अब उसे मर्दाने लगा। मेरे शरीर में पीड़ा इधर से उधर जा रही थी… भोंपू एक मंजे हुए साजिन्दे की तरह मेरे बदन के तार झनझना रहा था… मेरे बदन को कभी सितार तो कभी बांसुरी बना कर मेरे में से नए नए स्वर निकलवा रहा था।

मैं कभी दर्द में तो कभी हर्ष में आवाजें निकाल रही थी। रह रह कर वह नीचे का दबाव बढ़ाता जा रहा था। जैसे कोई दरवाज़ा खोल कर अंदर आने का प्रयत्न कर रहा हो पर कोई उसे अंदर ना आने देना चाहता हो… कुछ इस प्रकार का द्वंद्व लंड और योनि में हो रहा था। जब भी पीड़ा से मेरी आह निकलती भोंपू दबाव कम कर देता और किसी ऐसे मार्मिक अंग को होटों से चूम लेता कि मेरा दर्द काफूर हो जाता…

नाभि, पेट, बगल, स्तनों के नीचे का हिस्सा, गर्दन, कान, आँखें इत्यादि सभी को उसकी चुम्मा-चाटी का अनुभव हुआ। मेरे प्रति उसकी इस संवेदनशीलता का मुझ पर बहुत प्रभाव हो रहा था। मैंने अपना सिर झुका कर उसके होटों को चूमकर कृतज्ञता का इज़हार किया। वह शायद ऐसे ही मौके की प्रतीक्षा कर रहा था… जब हमारे होंट मिलकर कुछ आगे करने की सोच रहे थे, उसने एक ज़ोर का झटका लगाया और लंड को आधे से ज़्यादा अंदर ठूंस दिया। मेरी दर्द से ज़ोरदार आअआहाह निकल गई जो कि मेरे मुँह से होकर उसके मुँह में चली गई। उसने मेरे सिर के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए मुझे साहस दिया। योनि में लंड फंसा हुआ सा लग रहा था… योनि द्रवित होने के बावजूद तंग थी…मुझे भरा भरा सा महसूस हो रहा था… एक ऐसा अहसास जो मुझे असीम आनंद दे रहा था।

भोंपू ने और अंदर पहुँचने के लिए लंड से दबाव लगाया पर लगता था योनि की दीवारें आपस में चिपकी हुई हैं। उसने थोड़ा पीछे करके लंड से धक्का लगाने की कोशिश की पर ज़्यादा सफलता नहीं मिली। कल के मुकाबले वह आज कम ज़ोर लगा रहा था। या तो वह मुझे दर्द नहीं देना चाहता था या सोचता होगा कि जब योनि की सील ही टूट गई है तो फिर लंड आसानी से घुस जाना चाहिए। पर उसका अनुमान गलत था।

कल जो कुछ हुआ उससे में अनजान थी… मुझे पता नहीं था क्या होगा, कैसे होगा, दर्द कितना होगा… पर आज मेरा शरीर और दिमाग दोनों अनजान नहीं थे। शायद इसीलिए, दर्द के पूर्वाभास से मैं अपनी योनि को सकोड़ रही थी… जानबूझ कर नहीं… अनजाने में… एक तरह से मेरे शरीर की आत्म-रक्षा की प्रतिक्रिया थी। मुझे जब यह आभास हुआ तो मैंने अपने बदन को ढीला छोड़ने की कोशिश की और साथ ही भोंपू के कूल्हे पर एक हल्की सी चपत लगा कर उसे उकसाया… जैसे एक घुड़सवार एड़ी लगाकर घोड़े को तेज़ चलने के लिए प्रेरित करता है। फर्क इतना था कि यहाँ घोड़ी अपने सवार को उकसा रही थी !

भोंपू ने मेरा संकेत भांपते हुए मेरे स्तनों के बीच अपनी नाक घुसा कर मुझे गुदगुदी की और लंड को सुपारे तक बाहर निकाल लिया। मैं उसके प्रहार के प्रति चौकन्नी हुई और मेरा तन फिर से सहमने लगा तो मैंने अपने आप का ढांढस बढ़ाते हुए अपने शरीर, खास तौर से योनि, को ढीला छोड़ने का प्रयास किया।

तभी भोंपू ने ज़ोरदार मर्दानी ताकत के साथ लंड का प्रहार किया और मेरी दबी हुई चीख के साथ उसका लंड मूठ तक मेरी योनि में समा गया। मुझे लगा मेरी चूत ज़रूर फट गई होगी… दर्द काफ़ी पैना और गहरा लग रहा था… मेरी आँख में दर्द से आंसू आ गए थे। उसका भरा-पूरा लंड चूत में ऐसे ठंसा हुआ था कि मुझे सांस मेने में दुविधा हो रही थी… मेरा शरीर उसके शरीर के साथ ऐसे जुड़ गया था मानो दो लकड़ी की परतों को कील ठोक कर जोड़ दिया हो… यह सच भी था… एक तरह से उसने अपनी कील मुझ में ठोक ही दी थी। पर अब मुझे उसका ठुंसा हुआ लंड अपने बदन में अच्छा लग रहा था… मैं कल से भी ज़्यादा भरी हुई लग रही थी… मानो उसका लंड एक दिन में और बड़ा हो गया था या मेरी मुन्नी और संकरी हो गई थी।

उसने चुदाई शुरू करने के लिए लंड बाहर निकालना चाहा तो उसे आसान नहीं लगा। चूत की दीवारों ने लंड को कस कर अपने शिकंजे में पकड़ा हुआ था। भोंपू के अंतरमन से संतुष्टी और आनंद की एक गहरी सांस निकली और उसने मेरी गर्दन को चूम लिया… शायद उसे भी मेरी तंग चूत में ठसे हुए लंड की अनुभूति मज़ा दे रही थी। उसने मेरी टांगों को थोड़ा चौड़ा किया और धीरे धीरे लंड थोड़ा बाहर निकाला और ज़ोर से पूरा अंदर डाल दिया… इसी तरह धीरे धीरे बाहर और जल्दी से अंदर करने लगा… हर बार उसका लंड थोड़ा और ज़्यादा बाहर आता… अंततः लंड सुपारे तक बाहर आने लगा।

मेरा दर्द कम था पर अब भी उसके हर प्रहार से मैं हल्का सा उचक रही थी और मेरी हल्की हल्की चीख निकल रही थी। भोंपू को मेरी चीख और भी उत्तेजित कर रही थी और वह नए जोश के साथ मुझे चोदने लगा। जोश में उसका लंड पूरा ही बाहर आ गया और जब वह अंदर डालने लगा तो मेरे योनि द्वार मानो स्प्रिंग से बंद हो गए।उसे फिर से सुपारे को चूत के छेद पर रख कर धक्का मारना पड़ा। इस बार भी लंड पूरा अंदर नहीं गया और एक दो झटकों के बाद ही पूरा अंदर-बाहर होने लगा। भोंपू को ये चुदाई बहुत अच्छी लग रही थी… वह रह रह कर मेरा नाम ले रहा था… उसके अंदर से आह … ऊऊह की आवाजें आने लगीं थीं। मैं भी चुदाई का आनंद ले रही थी और मेरे कूल्हे भोंपू की चुदाई की लय के साथ स्वतः ऊपर-नीचे होने लगे थे जिससे उसका लंड हर बार पूरी गहराई तक अंदर-बाहर हो रहा था। अंदर जाता तो मूठ तक और बाहर आता तो सुपारे तक। हम दोनों को घर्षण का पूरा आनंद मिल रहा था।

कुछ देर में उसका लंड मेरी गीली चूत में सरपट चलने लगा… जब भी वह ज़ोर लगा कर लंड पूरा अंदर ठूंसता मेरे अंदर से ह्म्म्म … हम्म्म्म की आवाजें आतीं और कभी कभी हल्की सी चीख भी निकल जाती। उसका जोश बढ़ रहा था… उसकी रफ़्तार तेज़ होने लगी थी… हम दोनों की साँसें तेज़ हो रहीं थीं… मेरी चूचियां अकड़ कर खड़ी हो रहीं थीं… उसकी आँखों की पुतलियाँ बड़ी हो गईं थीं… उसकी नथुनियाँ भी बड़ी लग रहीं थीं… मुझे लगा उसका लंड और भी मोटा हो गया था… मेरी चूत में कसमसाहट बढ़ने लगी … मेरे अंदर आनंद का ज्वारभाटा आने लगा… मैं कूल्हे उचका उचका कर उसके धक्कों का सामना करने लगी जिससे उसका लंड और भी अंदर जाने लगा…

मैं उन्मादित हो गई थी… अचानक मेरे बदन में एक बिजली की लहर सी दौड़ गई और मैं छटपटाने लगी … मैंने अपनी जांघें कस लीं, सांस रोक ली और दोनों हाथों से भोंपू को कस कर पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया जिससे उसका लंड जड़ तक मेरे अंदर आ गया। मैंने भोंपू को अपने अंदर लेकर रोक दिया और मेरा बदन हिचकोले खाने लगा… मुझे लगा मेरी योनि सिलसिलेवार ढंग से लंड का जकड़ और छोड़ रही है… मेरा पूरा बदन संवेदनशील हो गया था।

भोंपू ने फिर से चुदाई करने की कोशिश की तो मेरे मार्मिक अंगों से सहन नहीं हुआ और मुझे उसे रोकना पड़ा। थोड़ी देर में मेरा भूचाल शांत हो गया और मैं निढाल सी पड़ गई। भोंपू ने फिर से चुदाई शुरू करने की कोशिश की तो मैंने फिर से उसे रोक दिया… कुछ देर रुकने के बाद जब मुझे होश आया, मैंने भोंपू की पीठ पर अपनी टांगें लपेट कर उसे शुरू होने का संकेत दिया। उसका लंड थोड़ा ढीला हो गया था सो चुदाई चालू करने पर मुझे वैसा बड़ा नहीं लगा…पर चुदाई करते करते वह धीरे धीरे बड़ा होने लगा और कुछ ही देर में फिर से मुझ पर कहर ढाने लगा। मेरी फिर से ह्म्म्म ह्म्म्म आवाजें आने लगीं… भोंपू की भी हूँ… हांह शुरू हो गई… पर थोड़ी ही देर में उसने एक हूंकार सी लगाई और अपना लंड बाहर निकाल कर कल की तरह मेरे बदन पर अपने रस की वर्षा करने लगा।

अचानक खाली हुई चूत कुछ देर खुली रही और फिर लंड के ना आने से मायूस हो कर धीरे धीरे बंद हो गई। कोई 4-5 बार अपना दूध फेंकने के बाद भोंपू का लंड शिथिल हो गया और उसमें से वीर्य की बूँदें कुछ कुछ देर में टपक रही थी। उसने अपने मुरझाये लिंग को निचोड़ते हुए मर्दाने दूध की आखिरी बूँद मेरे पेट पर गिराई और बिस्तर से उठा गया। एक तौलिए से उसने मेरे बदन से अपना वीर्य पौंछा और मेरे ऊपरी अंगों को एक एक पुच्ची कर दी और लड़खड़ाता सा बाथरूम चला गया।

आगे की कहानी ‘कुंवारी भोली-8’ में पढ़िए।

शगन