चूचियाँ कलमी आम-1

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आपके ढेरों ईमेल इस बात के परिचायक हैं कि आपको मेरा साझा अनुभव बहुत पसंद आया, इसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

कई लोगों ने तो आँटी का फ़ोटो और मोबाईल नंबर तक मांग लिया लेकिन आपको तो मालूम ही है कि ऐसे सारे मामलों में राज़दारी बहुत ज़रूरी होती है।

चलें छोड़ें… आपके लिए एक और कहानी ‘कलमी आम’ लेकर हाज़िर हूँ। मेरे बारे में ज्यादा जानने के लिए मेरी कहानी ‘नाम में क्या रखा है’ अवश्य पढ़ें !

अभी अभी मेरी मूंछ की रेखायें दिखनी ही शुरू हुई थी, यह बात अलग है कि औरतें मेरे फूले फूले ज़िप वाले हिस्से को देख कर ही मेरी उम्र का पता लगा लेती थीं जो उनके सामने और तन्ना जाता था।

छुट्टियाँ होते ही मैं बड़े काका के वहाँ आ गया था, मध्य प्रदेश की औद्योगिक राजधानी माने जाने वाले होलकर स्टेट की राजधानी से यह क़स्बा शहर के पास था, आस-पास के लोग अपने ज़मीनों के टुकड़ों को बेच चुके थे जिन पर मंदी के कारण प्रोजेक्ट पूरे नहीं हो पा रहे थे, ये आधे अधूरे लिविंग और शापिंग काम्प्लेक्स के बीच घने झाड़ों से घिरा हमारा पुराना हवेलीनुमा मकान बहुत ही ख़ूबसूरत है।

आस-पास कुछ अधूरे काम्प्लेक्स में कुछ नव-विवाहित युगल भी बस गए थे।

सुबह को छत पर आकर जब में कसरत करता तो कई जोड़ी आँखें मुझे चुभती सी महसूस होती थी।

खैर यह सब तो ठीक था पर मुझे इंतज़ार होता था ग्यारह बजे का उस वक़्त एक कुंजड़न अपनी सब्ज़ी की छाबड़ी (या छबड़ी, कम गहराई वाली बांस की चौड़ी टोकरी) सर पर लिए घर के पास थोड़ा सुस्ताने और खाने के लिए आती थी।

पहले दिन ताई ने अंदर से चिल्लाकर कहा- बाबू, ज़रा इसकी टोकरी उतरवा दे! और उसकी बगलों से आती तेज़ पसीने की गंध पहले दिन तो बुरी लगी पर फिर मुझे उस गंध ने अपना दीवाना बना लिया।

वो पच्चीस-छब्बीस साल की गौरवर्णी छरहरे बदन और भरी भरी छाती और चौड़े चूतड़ों वाली कमनीय, नाभि-दर्शना, गज-गामिनी अपने लुगड़े (पेटीकोट की तरह मोटे कपड़े का कमर पर बाँधने वाला घाघरा) पर लपेटे मोटे रंगीन छोटे छोटे फूलों की प्रिंट वाले चुनरी सी छोटी धोती से एक साथ दो को ढकने की कोशिश में न तो नितम्ब ढक पाते न ही स्तन! बिना ब्रा की ब्लाउज जैसी अनारी जिसे चोली कहते हैं, उसमें से जब वो छबड़ी उठाते वक़्त हाथ उठाती तो अक्सर उसके गोरे गोरे दूध में गुलाब से घुले रंग का स्तन थोड़ा सा बाहर आ जाता, जिस पर उसके उफ़्फ़ करने पर गालों में पड़ते गड्डे और उन पर काली जुल्फें जब लहराती तो बाबूराम मस्त होकर ऐसी अंगड़ाई लेता कि अन्दर सपोर्टर (लंगोट) पहनने के बाद भी ट्रेक सूट पर से फूला फूला टोपा और उसका मुड़ा शरीर दिखाई देने लगता और अक्सर उसकी नज़र वहीं होती।

पहले दिन जैसे ही मैंने उसकी छबड़ी उतरवाई, उसने कहा- थैंक यू!

मैंने अचरज से उसे देखा तो ताई बोलीं- अरे ! हमारी गौरी सातवीं तक पढ़ी है! जा अंदर से इसे पिछले महीने वाली मेरी सहेली मैगज़ीन उठा दे, यह हेमा मालिनी की बड़ी फैन है।

मेरे लंड ने फुंफकार कर अपने मुंह में आ गई बूँद को उगलकर कहा- यह दिन की ड्रीमगर्ल तो बड़े कमाल की चीज़ है।

छबड़ी उतार कर वो कोने में नीम के झाड़ के पीछे नौकरों वाले हम्माम में चली गई जिसे उसकी इजाज़त ताई जी ने दे रखी थी।

अपनी पारिवारिक हैसियत के कारण ताई आस-पास किसी से मिलती नहीं थी। इससे देर तक आस-पास के बारे में बतिया लेतीं थी।

दो तीन दिनों में ही गौरी मुझसे खुल गई थी। बातें करते करते मैं अक्सर उसके स्तनों पर नज़र डाल लेता जिसे वो अपने पल्लू से ढक कर बता देती- जहाँ तेरी ये नज़र है, मेरी जाँ मुझे खबर है!

और मैं खिसिया जाता!

कई बार गौरी पूछती- यहाँ दिन भर तुम क्या करते रहते हो? बोर नहीं हो जाते?

मैं अपने मोबाईल की तरफ इशारा करके कहता- इस पर तो समय भी कम पड़ जाता है।

‘हैं?’ वो बोली- क्या है इसमें???

मैं कहता- सब कुछ !

वो आती, ताई से बात करते करते अपनी सब्ज़ी टोकरी में जमाती बाहर घड़े से अपने कांसे वाले लोटे को पानी से भर कर कपड़े में लिपटी रोटियाँ निकालकर खाने बैठ जाती। खाने के बाद थोड़ा पानी अपनी गर्दन ऊंची कर गटकती कुछ बूँदें ढोड़ी से होती उसके स्तन की गहरी वादियों में खो जाती !

यही दिनचर्या थी उसकी। यह कहानी आप हिंदी की सबसे बड़ी कामुक कहानी प्रस्तोता पोर्टल अन्तर्वासना डॉट काम पर पढ़ रहे हैं।

आज सुबह से हल्की हल्की बारिश हो रही थी, बादल घुमड़ घुमड़ आते थे, सूरज की लुका-छुपी में मैं छत पर हल्की फ़ुल्की कसरत करके इधर-उधर देख रहा था, सामने की थोड़ी दूर वाली बिल्डिंग में एक भाभी दिखाई दे रही थी लेकिन वो अपने काम में मस्त थी। सोचा, एकाध बार भी इधर देखे तो मूठ मारने का आसरा हो जाए क्यूंकि आते समय स्टेशन के पास वाली गली से दो मस्तराम की नई बढ़िया वाली और एक पुरानी इंग्लिश फ़ोटो वाली कहानी की किताब लाया था जो मिल नहीं रही, पता नहीं कहाँ रखी गई, उनका ध्यान आते ही मैं बेचैन हो जाता कि कहीं काकी या काका के हाथ न पड़ जाएँ!

खैर भाभी ने जैसे ही उसने इधर देखा तो मैं डर कर पीछे हो गया।

पीछे के रास्ते से देखता क्या हूँ, गौरी सर पर छबड़ी रखे धीरे धीरे घर की तरफ ही आ रही है पर नीचे तो दरवाज़ा बंद था।

अभी वो मोड़ पर ही थी में दौड़ कर नीचे आया दरवाज़ा खोल कर वापस दरवाज़े की ओट में हो गया।

आज ताई काका के साथ मेडिकल चेकअप के लिए शहर गई थी और घर में कोई नहीं था।

धीरे धीरे गौरी बढ़ती ही आ रही थी, उसके हर कदम पर मेरी धड़कन बढ़ती जाती थी, ओसारे में पानी कीचड़ हो रहा था, उसके बदन पर पूरे कपड़े चिपक कर उसे एक मूरत में बदल चुके थे। आज उसके बदन का एक एक उभार जैसे कयामत ढा रहा था।

‘मौसी… मौसी…’ कह कर वो अन्दर तक बढ़ आई। मैं अचानक उसके सामने आ गया, गौरी हड़बड़ा कर गिरने को हुई लेकिन ख़ुद ही संभल गई- बाबू, तुमने तो मुझे डरा ही दिया?

कहकर वो मेरे सामने ही आ गई।

मैंने भी हाथ बढ़ा कर उसकी छबड़ी उतारने को एक कदम आगे बढ़ाया और झटके से उसकी छबड़ी सर से सरकाते उतारी तो चुमली (एक कपड़ा जिसे गोल करके सर के नीचे रख लिया जाता है कि बोझा सर पर चुभे नहीं) छबड़ी के साथ और चुनरी चुमली के साथ नीचे आ गई और साथ ही सामने आ गई। उसके दोनों मद भरे ठोस उरोजों के बीच की गहरी घाटी और उन पर फिसलती ख़ुदकुशी सी करती बूँदें !

अचानक इस हरकत से उसका चेहरा लाल हो गया, उसने नज़रें झुका ली और चुपचाप खड़ी हो गई।

मुझे न जाने क्या सूझा कि मैंने उसकी छोटी सी ठुड्डी, जिस पर गोदने का एक तिल था, अपने अंगूठे और तर्जनी से ऊपर उठाया।

उसने आपनी आँखें खोली तो उसमे कामुकता के लाल डोरे तैर रहे थे।

अचानक जोर की बिजली कड़की और वो मुझ से लिपट गई, फिर ठिठक कर ख़ुद ही दूर हो गई।

मैं भी अन्दर हो गया क्यूँकि बाबूराम कपड़े फाड़कर बाहर आने के मूड में था।

वो बैठी रही, मैं दीवार की साइड में होकर छुपकर उसे अपनी मोटर-साईकल के शीशे में देखता रहा। उसने अपनी चुनरी उतारी, उसे निचोड़ा झटकारा और दीवार पर फैला दिया। उसके तने हुए उरोज बस जैसे आमंत्रण दे रहे थे कि इस पर्वत पर अपना झंडा गाड़ दो।

उसने रोटी का कपड़ा खोला, पानी का लौटा भरा, एक घूँट पिया, एकाध दो कौर खाई, वापस रख दिया।

गौरी आवाज़ से अनुमान लगाने की कोशिश कर रही थी कि मैं कहाँ हूँ?

जब कुछ समझ नहीं आया तो धीरे धीर ‘मौसी मौसी’ कहकर पुकारा।

मैं चुपचाप उसे 45 के कोण से निहारता रहा। अचानक मेरा एक हाथ अपने लंड को सहलाने लगा और मेरे दिल में आज गौरी की चुदाई की चरम इच्छा परवान चढ़ने लगी लेकिन मैंने देखा, गौरी उठी और लुगड़ा उठा कर आगे बढ़कर मूतने बैठ गई।

मैं चीते की चाल से लपक कर मुंडेर के उस तरफ धप कर के कूदा और अपना लौड़ा बाहर निकालकर मुंडेर के पास से लंड निकाल कर लम्बी धार मार दी। मुझे पूरा विश्वास था कि वहाँ से गौरी को मेरा मोटा लम्बा लंड अवश्य दिखाई दे रहा होगा।

थोड़ी देर में पीछे से आवाज़ आई- मौसी… मौसी…

मैंने बाहर आकर देखा तो वो अपनी सब्जियाँ जमा चुकी थी और चुनरी भी उसके सर पर थी।

गौरी- बाबू, आज घर पर कोई नहीं है?

मैं- हाँ, काकी काका का चेकअप करने शहर गए हैं, शायद शाम हो जाये!

गौरी- कुछ चाहिये क्या?

मैं- सब्ज़ी का तो काकी कुछ बोली नहीं…हाँ, कलमी आम चूसे बहुत दिन हो गए?

गौरी- लेकिन मेरे पास तो सब्जियाँ हैं, पहले कहते तो मंडी से ला देती। अच्छा ज़रा टोकरी तो सर पर रखवा दे। बड़े अनमने भाव से बोली- आज तो कुछ ग्राहकी भी नहीं थी।

मैंने सोचा कि यह तो गई, अब ऐसा मौका नहीं मिलेगा। टोकरी उठाते हुए अपने सर पर रखते उसके दोनों हाथ टोकरी पर थे, झटके से टोकरी उठाने से आज गीले होने के कारण उसके उरोज उतने बाहर नहीं निकले जितने पहले चोली से निकल जाया करते थे।

मैं हिम्मत करके दोनों स्तनों को अपनी गिरफ्त में लेते हुए बोला- गौरी तू बड़ी झूठी है! नहीं खिलाना है तो मत खिला, यह तो मत बोल कि आम नहीं हैं…!! कहानी जारी रहेगी।

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